HC ने दी 30 हफ्तों का गर्भ गिराने की अनुमति, कहा- एक जैसे दो बच्चों को पालना बड़ी चुनौती होगी

HC ने दी 30 हफ्तों का गर्भ गिराने की अनुमति, कहा- एक जैसे दो बच्चों को पालना बड़ी चुनौती होगी

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दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 साल की एक महिला को उसके करीब 30 हफ्तों के गर्भ को मेडिकल तरीके से हटाने की अनुमति दे दी, क्योंकि जांच के दौरान पाया गया कि भ्रूण में मानसिक विकास से जुड़ी एक बीमारी (न्यूरोडेवलपमेंट डिसऑर्डर) का होना पाया गया था। शुक्रवार को इस बारे में आदेश जारी करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘कानून यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं को ऐसे गर्भधारण को पूरा करने के लिए बाध्य न किया जाए, जहां बच्चा गंभीर असामान्यताओं के साथ पैदा हो।’ 

याचिकाकर्ता महिला का पहला बच्चा भी इसी तरह की बीमारी से जूझ रहा है, ऐसे में कोर्ट ने कहा कि गंभीर दिव्यांगता वाले एक जैसे दो बच्चों का पालनपोषण करना बहुत बड़ी चुनौती होगी।

बच्चे की बीमारी को लेकर एम्स के डॉक्टर्स के बोर्ड द्वारा तैयार रिपोर्ट को देखते हुए कोर्ट ने कहा कि जांच से यह इशारा मिल रहा है कि अगर बच्चा पैदा होता है, तो ‘जौबर्ट सिन्ड्रोम’ के कारण उसे बहुत सी गम्भीर न्यूरोलॉजिकल (तंत्रिका संबंधी दुर्बलता) बीमारियों और स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

जस्टिस संजीव नरुला ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता महिला का पहला बच्चा भी न्यूरोलॉजिकल दिव्यांगता से ग्रस्त है, और यदि इस मामले में गर्भावस्था को मेडिकली हटाने की अनुमति नहीं दी जाती है, तो उसे और उसके परिवार को गम्भीर न्यूरो-डेवलपमेंट समस्याओं वाले दो बच्चों की देखभाल करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जो कि संभवतः बहुत मुश्किल भी होगा, क्योंकि इसके लिए व्यापक, निरन्तर और लगातार उन्नत चिकित्सा देखभाल की जरूरत पड़ेगी।

साथ ही कोर्ट ने आगे कहा, सीमित आय वाले परिवार में गंभीर विकलांगता वाले दो बच्चों के पालन-पोषण का बोझ एक कठिन काम है, जिससे याचिकाकर्ता के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, ‘गंभीर न्यूरोलॉजिकल कठिनाइयों के पर्याप्त जोखिम और स्थापित मेडिकल गाइडलाइन्स को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने पाया कि एम्स मेडिकल बोर्ड की सिफारिश साक्ष्यों पर आधारित है और याचिकाकर्ता के स्वास्थ्य और बच्चे के जीवन की संभावित गुणवत्ता के अधिकतम हित में है। ऐसे में याचिकाकर्ता को गर्भावस्था के मेडिकल टर्मिनेशन की अनुमति दी जाती है।’

जज ने आगे कहा, ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी अधिनियम के प्रावधान, संविधान में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांतों के अनुरूप न्यायोचित परिस्थितियों में गर्भवती महिला के गर्भपात कराने के अधिकार की पुष्टि करते हैं। इससे यह सुनिश्चित होता है कि महिलाओं को गर्भावस्था को पूर्ण अवधि तक निभाने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, क्योंकि ऐसा करने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा या गंभीर विकृतियों वाले बच्चे का जन्म होगा।’

कोर्ट ने इस केस में सहायता के लिए एम्स मेडिकल बोर्ड की भी सराहना की और कहा कि इस मामले में अपनी राय देने वाले डॉक्टरों को इस याचिका से उत्पन्न किसी भी मुकदमे की स्थिति में छूट दी जाएगी। इस केस को लेकर याचिकाकर्ता के वकील अमित मिश्रा ने तब उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जब लोक नायक अस्पताल में महिला का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने 13 जून को गर्भावस्था को मेडिकल तरीके से हटाने (एमटीपी) के उसके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था। 

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